Wednesday 15 August 2012

झंडा ऊँचा रहे हमारा

स्वतंत्रता के भीषण रण में. लख कर जोश बढ़े छण छण में

मिट जाये भय संकट सारा झंडा ऊँचा रहे हमारा

कुछ ऐसी ही भावनाओं से ओतप्रोत भारतीय जनमानस देश की स्वतंत्रता.देश के लोकतंत्र तथा देश की एकता और अखंडता को मजबूत बनाये रखने के लिए संकल्पित है. और इस संकल्प को नए सिरे से प्रतिष्ठित प्रतिबिंबित और रेखांकित करने का ऐतिहासिक अवसर है स्वतंत्रता दिवस. जब हम देश के सामने मौजूद चुनौतियों और विषम परिस्थितियों के बीच देश हित में अपना सर्वस्व न्योछावर करने का संकल्प लेते है. यह एक संकल्प दिवस है. यह भारत माँ के महान सपूतों का सौर्य दिवस है.यह दुनिया को दिखाने के लिए सिरमौर्य दिवस है.

देश में एक बार फिर 15 अगस्त 2012 बुधवार  को स्वतंत्रता दिवस या आजादी के दिन के अवसर पर अनेक कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है.। देश में बढ़ते भ्रष्टाचार, अराजकता, बेरोजगारी, भूखमरी, बेरोजगारी, अस्वास्थ्य की स्थित और गरीबी की वजह से अनेक लोगों के लिये 15 अगस्त की आजादी एक भूली बिसरी घटना हो गयी है। आजादी को अब 65 वर्ष हो गये हैं और इसका मतलब यह है कि कम से हर परिवार की पांच से सात पीढ़ियों ने इस दौरान इस देश में सांस ली होगी। हम देखते हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी एतिहासिक घटनाओं की स्मृतियां फीकी पड़ती जाती हैं। एक समय तो उनको एक तरह विस्मृत कर दिया जाता है। अगर 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस और और 26 जनवरी गणतंत्र दिवस हर वर्ष औपचारिक रूप से पूरे देश में न मनाया जाये तो शायद हम इन तारीखों को भूल चुके होते। वैसे निंरतर औपचारिक रूप से मनाये जाने के बाद भी कुछ वर्षों बाद एक दिन यह स्थिति आयेगी कि इसे याद रखने वालों की संख्या कम होगी या फिर इसे लोग औपचारिक मानकर इसमें अरुचि दिखायेंगे।

            ऐतिहासिक स्मृतियों की आयु कम होने का कारण यह है कि इस संसार में मनुष्य की विषयों में लिप्तता इस कदर रहती है कि उसमें सक्रियता का संचार नित नयी एतिहासिक घटनाओं का सृजन करता है। मनुष्य जाति की इसी सक्रियता के कारण ही जहां इतिहास दर इतिहास बनता है वही उनको विस्मृत भी कर दिया जाता है। हर पीढ़ी उन्हीं घटनाओं से प्रभावित होती है जो उसके सामने होती हैं। वह पुरानी घटनाओं को अपनी पुरानी पीढ़ी से कम ही याद रखती है। इसके विपरीत जिन घटनाओं का अध्यात्मिक महत्व होता है उनको सदियों तक गाया जाता है। हम अपने अध्यात्मिक स्वरूपों में भगवत् स्वरूप की अनुभूति करते हैं इसलिये ही भगवान श्री विष्णु, श्री ब्रह्मा, श्री शिव, श्री राम, श्री कृष्ण तथा अन्य स्वरूपों की गाथायें इतनी दृढ़ता से हमारे जनमानस में बसी हैं कि अनेक एतिहासिक घटनायें उनका विस्मरित नहीं करा पातीं। हिन्दी के स्वर्णिम काल में संत कबीर, मानस हंस तुलसी, कविवर रहीम, और भक्तमणि मीरा ने हमारे जनमानस को आंदोलित किया तो उनकी जगह भी ऐसी बनी है कि वह हमारे इतिहास में भक्त स्वरूप हो गये और उनकी श्रेणी भगवान से कम नहीं बनी। हम इन महामनीषियों के संबंध में श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित इस संदेश का उल्लेख कर सकते हैं जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘जैसे भक्त मुझकों भजते हैं वैसे ही मैं उनको भजता हूं’। अनेक विद्वान तो यह भी भी कहते हैं कि भक्त अपनी तपस्या और सृजन से भगवान की अपेक्षा बढ़े हो जाते हैं।

स्वतंत्रता संग्राम के समय अनेक महापुरुष हुए। उनके योगदान का अपना इतिहास है जिसे हम पढ़ते आ रहे हैं पर हैरानी की बात है कि इनमें से अनेक भारतीय अध्यात्म से सराबोर होने के बावजूद भारतीय जनमानस में उनकी छवि भक्त या ज्ञानी के रूप में नहीं बन पायी। स्पष्टतः स्वतंत्रता संग्राम में उनकी सक्रिय छवि ने उनके अध्यात्मिक पक्ष को ढंक दिया। स्थित यह है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी अनेक लोग राजनीतिक संत कहते हैं जबकि उन्होंने मानव जीवन को सहजता से जीने की कला सिखाई।

        ऐसा नहीं है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन राष्ट्र या मातृभूमि को महत्व नहीं देता। भगवान श्रीकृष्ण ने तो अपने मित्र श्री अर्जुन को राष्ट्रहित के लिये उसे क्षात्र धर्म अनुसार निर्वाह करने का उपदेश दिया। दरअसल क्षत्रिय कर्म का निर्वाह मनुष्य के हितों की रक्षा के लिये ही किया जाता है। यह जरूर है कि चाहे कोई भी धर्म हो या कर्म अध्यात्मिक ज्ञान होने पर ही पूर्णरूपेण उसका निर्वाह किया जा सकता है। देखा जाये तो भारत और यूनान पुराने राष्ट्र माने जाते हैं। भारतीय इतिहास के अनुसार एक समय यहां के राजाओं के राज्य का विस्तार ईरान और तिब्बत तक इतना व्यापक था कि आज का भारत उनके सामने बहुत छोटा दिखाई देता है। ऐसे राजा चक्रवर्ती राजा कहलाये। यह इतिहास ही राष्ट्र के प्रति गौरव रखने का भाव अनेक लोगों में अन्य देशों के नागरिकों की राष्ट्र भक्ति दिखाने की प्रवृत्ति की अपेक्षा कम कर देता है। इसी कारण अनेक बुद्धिमान इस देश के लोगों में राष्ट्रप्रेम होने की बात कहते हैं। यह सही है कि बाद में विदेशी शासकों ने यहा आक्रमण किया और फिर उनका राज्य भी आया। मगर भारत और उसकी संस्कृति अक्षुण्ण रही। इसका अर्थ यह है कि 15 अगस्त को भारत ने केवल राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की और कालांतर वैसे ही महत्व भी माना गया। स्वतंत्रता के बाद भारतीय अध्यात्मिक को तिरस्कृत कर पश्चिम से आये विचारों को न केवल अपनाया गया बल्कि उनको शैक्षणिक पाठ्यक्रमों से जोड़ा भी गया। हिन्दी में अनुवाद कर विदेशी विद्वानों को महान कालजयी विचारक बताया गया। इससे धीमे धीमे सांस्कृतिक विभ्रम की स्थिति बनी और अब तो यह स्थिति यह है कि अनेक नये नये विद्वान भारतीय अध्यात्मक के प्रति निरपेक्ष भाव रखना आधुनिकता समझते हैं। इसके बावजूद 64 साल के इस में इतिहास की छवि भारत के अध्यात्मिक पक्ष को विलोपित नहीं कर सकी तो इसका श्रेय उन महानुभावों को दिया जाना चाहिए जिन्होंने निष्काम से जनमानस में अपने देश के पुराने ज्ञान की धारा को प्रवाहित रखने का प्रयास किया। यही कारण है कि 15 अगस्त और 26 जनवरी को मनाने तथा भीड़ को अपने साथ बनाये रखने के लिये उनके तरह के प्रयास करने पड़ते हैं जबकि राम नवमी, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी और महाशिवरात्रि पर स्वप्रेरणा से लोग उपस्थित हो जाते हैं। एक तरह से इतिहास और अध्यात्मिक धारायें प्रथक प्रथक हो गयी हैं जो कि होना नहीं चाहिए था।

        एक जो सबसे बड़ी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस स्वतंत्रता ने भारत का औपचारिक रूप से बंटवारा किया जिसने इस देश के जनमानस को निराश किया। अनेक लोगों को अपने घरबार छोड़कर शरणार्थी की तरह जीवन पाया। शुरुआती दौर में विस्थापितों को लगा कि यह विभाजन क्षणिक है पर कालांतर में जब उसके स्थाई होने की बात सामने आयी तो स्वतंत्रता का बुखार भी उतर गया। जो विस्थापित नहीं हुए उनको देश के इस बंटवारे का दुःख होता है। विभाजन के समय हुई हिंसा का इतिहास आज भी याद किया जाता है। यह सब भी विस्मृत हो जाता अगर देश ने वैसा स्वरूप पाया होता जिसकी कल्पना आजादी के समय दिखाई गयी। ऐसा न होने से निराशा होती है पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन इसे उबार लेता है। फिर जब हमारे अंदर यह भाव आता है कि भारत तो प्राचीन काल से है राजा बदलते रहे हैं तब 15 अगस्त की स्वतंत्रता की घटना के साथ जुड़ी हिंसक घटनाओं का तनाव कम हो जाता है।सीधी बात कहें तो हमारे देश के जनमानस वही तिथि या घटना अपनी अक्षुण्ण बनाये रख पाती है जिसमें अध्यात्मिकता का पुट हो। एतिहासिकता के साथ अध्यात्मिकता का भाव हो वरना भारतीय जनमानस औपचारिकताओं में शनै शनै अपनी रुचि कम कर देता है। इसी भाव के कारण दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से राष्ट्रीय पर्वों पर आम जनमानस का उत्साह धार्मिक पर्वों के अवसर पर कम दिखाई देता है। हालांकि अध्यात्मिकता के बिना एतिहासिक घटनाओं के प्रति आम जनमानस अधूरापन दिखाना जागरुक लोगों को बुरा लगता है। हमारे यहां स्वतंत्रता संग्राम में दौरान आज़ादी तथा देश भक्ति का नारा इस तरह लगा कि हमारे यहां पेशेवर अभियान संचालक लोगों की भीड़ को एकत्रित करने के लिये आज भी लगाते हैं। लोगों   के राष्ट्रप्रेम की धारा इस तरह बह रही है कि आज भी स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस तथा गांधी जयंती पर भाव विभोर करने वाले गीत लोगों को लुभाते हैं। जब कोई आंदोलन या प्रदर्शन होता है तो उस समय मातृभूमि का नारा देकर लोगों को अपनी तरफ आकृष्ट करने के प्रयास होते हैं जिनसे प्रभावित होकर लोगों की भीड़ जुटती भी है।


         देश को स्वतंत्रता हुए 64 वर्ष हो गये हैं और इस समय देश की स्थिति इतनी विचित्र है कि धनपतियों की संख्या बढ़ने के साथ गरीबी के नीचे रहने वालों की संख्या उनसे कई गुना बढ़ी है। आर्थिक उदारीकरण होने के बाद तो यह स्थिति हो गयी है कि उच्च मध्यम वर्ग अमीरों में आ गया तो गरीब लोग अब गरीबी की रेखा के नीचे पहुंच गये हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश में करोड़पतियों की संख्या में बढ़ोतरी हो गयी है तो समाज के हालत बता रहे हैं कि रोडपति उससे कई गुना बढ़े हैं। इसी कारण विकास दर के साथ अपराध दर भी तेजी बढ़ी है। आधुनिक तकनीकी जहां विकास में योगदान दे रही है तो उसके सहारे अपराध के नये नये तरीके भी इजाद हो गये हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि हमारा देश आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विरोधाभासों के बीच सांसे ले रहा है। स्थिति यह है कि अनेक लोग तो 65 वर्ष पूर्व मिली आजादी पर ही सवाल उठा रहे हैं। अनेक लोग तो अब दूसरे स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ करने की आवश्यकता बता रहे हैं। मातृभूमि की रक्षा के नारे की गूंज इतनी तेज हो उठती है कि सारा देश खड़ा होता है। तब ऐसा लगता है कि देश में बदलाव की बयार बहने वाली है पर बाद में ऐसा होता कुछ नहीं है। वजह साफ है कि राष्ट्र या मातृभूमि की रक्षा नारों

से नहीं होती न ही तलवारें लहराने या हवा में गोलियां चलाने से शत्रु परास्त होते हैं।

नहीं चाहिए मंदिर मस्जिद चाह नहीं गुरुद्वारों की

आज जरुरत हमें देश में वतन के पहरेदारों की

भारत माँ का मुकुट शिरोमणि सुलग रहा है शोलों से

काँप रही है रूह राष्ट्र की उग्रवाद के गोलों से

देश के सामने मौजूद चुनौतियों और विषम परिस्थितियों से द्रढ़ता पूर्वक

मुकाबला करते हुए हमें भारत माँ का कर्ज चुकाना ही होगा. देश हित में अपना पुरुषार्थ दिखाना ही होगा.देश के दुश्मनों और गद्दारों को उनकी औकात बताना ही होगा.

 


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